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पि॒ता य॒ज्ञाना॒मसु॑रो विप॒श्चितां॑ वि॒मान॑म॒ग्निर्व॒युनं॑ च वा॒घता॑म्। आ वि॑वेश॒ रोद॑सी॒ भूरि॑वर्पसा पुरुप्रि॒यो भ॑न्दते॒ धाम॑भिः क॒विः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pitā yajñānām asuro vipaścitāṁ vimānam agnir vayunaṁ ca vāghatām | ā viveśa rodasī bhūrivarpasā purupriyo bhandate dhāmabhiḥ kaviḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पि॒ता। य॒ज्ञाना॑म्। असु॑रः। वि॒पः॒ऽचिता॑म्। वि॒ऽमान॑म्। अ॒ग्निः। व॒युन॑म्। च॒। वा॒घता॑म्। आ। वि॒वे॒श॒। रोद॑सी॒ इति॑। भूरि॑ऽवर्पसा। पु॒रु॒ऽप्रि॒यः। भ॒न्द॒ते॒। धाम॑ऽभिः। क॒विः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:3» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:20» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे ईश्वर (यज्ञानाम्) प्राप्त हुए व्यवहारों का (पिता) पालनेवाला (असुरः) समस्त भूगोलादि पदार्थों का यथाक्रम अर्थात् यथास्थान फेंकनेवाला (विपश्चिताम्) विद्वानों के लिये (विमानम्) विमान के समान (वाघताम्) (च) और मेधावी जनों के (वयुनम्) उत्तम ज्ञान (भूरिवर्पसा) बहुत पराक्रम के (धामभिः) स्थानों के साथ (पुरुप्रियः) बहुतों को तृप्त करनेवाला (कविः) विशेष क्रम से जिसका दर्शन होता वह (भन्दते) प्रसन्न करता है और (रोदसी) आकाश और पृथिवी को (आ, विवेश) प्रविष्ट हुआ है वैसे (अग्निः) अग्नि भी तुम लोगों को जानने योग्य है ॥४॥
भावार्थभाषाः - जैसे ईश्वर सर्वत्र व्याप्त होकर सबकी व्यवस्था करता है, वैसे अग्नि पृथिव्यादिकों को अभिव्याप्त होकर आकर्षण से सब पदार्थों की व्यवस्था करता है। जैसे अग्नि अच्छे प्रकार युक्त किये हुए विमान को आकाश में शीघ्र चलाता है, वैसे विद्वानों की सेवापूर्वक योगाभ्यास के विज्ञान से सेवा किया हुआ जगदीश्वर चिदाकाश में मुक्तजनों को शीघ्र प्रवेश कर विहार कराता है ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यथेश्वरो यज्ञानां पिताऽसुरो विपश्चितां विमानं वाघतां च वयुनं भूरिवर्पसा धामभिः पुरुप्रियः कविर्भन्दते रोदसी आ विवेश तथाऽग्निरपि भवद्भिर्विज्ञेयः॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पिता) पालकः (यज्ञानाम्) सङ्गतानां व्यवहाराणाम् (असुरः) सर्वेषां भूगोलादिपदार्थानाम् यथाक्रमं प्रक्षेपकः (विपश्चिताम्) विदुषाम् (विमानम्) विमानमिव (अग्निः) पावकइव परमेश्वरः ( वयुनम्) प्रज्ञाम् (च) (वाघताम्) मेधाविनाम् (आ) (विवेश) प्रविष्टवान् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (भूरिवर्पसा) भूरि बहु च तद्वर्पश्च तेन सह (पुरुप्रियः) यः पुरून् बहून् प्रीणाति (भन्दते) सुखयति (धामभिः) स्थानैः सह (कविः) विक्रान्तदर्शनः ॥४॥
भावार्थभाषाः - यथेश्वरः सर्वत्र व्याप्य सर्वान् व्यवस्थापयति तथाग्निः पृथिव्यादीनभिव्याप्याकर्षणेन सर्वान् व्यवस्थापयति, यथाग्निः प्रयुक्तं विमानमाकाशे सद्यो गमयति तथा विद्वत्सेवापुरःसरेण योगाभ्यासविज्ञानेन सेवितो जगदीश्वरश्चिदाकाशे मुक्तान् सद्यः प्रवेश्य विहारयति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसा ईश्वर सर्वत्र व्याप्त असून सर्वांची व्यवस्था करतो, तसा अग्नी पृथ्वी इत्यादीमध्ये अभिव्याप्त असून आकर्षणाने सर्व पदार्थांची व्यवस्था करतो. जसे अग्नीने प्रयुक्त केलेले विमान आकाशातून जाते तसा विद्वानांनी योगाभ्यासाने सेवित केलेला ईश्वर चिदाकाशात मुक्त लोकांना शीघ्र प्रवेश करवून विहार करवितो. ॥ ४ ॥